शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

निराला

आज ऑफिस से घर आते आते बहुत तेज भूख लगी है।
घर पहुंचते ही रसोई से आती गर्म खाने की महक ने अचानक जठराग्नि को बहुत भड़का दिया।जल्दी से वस्त्र बदल,हाथ मुँह धो थाली के सामने बैठ गया।
भोजन आ गया।सलाड और नमकीन आ गई।मिठाई का भी एक टुकड़ा आया।
"मिर्च गर्म की है,लाऊँ?" श्रीमती ने पूछा।
अकस्मात् एक स्मृति दिमाग में कौंधी।
दर्द की लहर सी उठी।सिर के पिछले हिस्से से गर्दन में से सीधी दिल में उतरी। मानो भीतर कुछ पिघल गया है।
कुछ टपकने का अहसास हुआ।
क्षण भर बाद उस पिघले पदार्थ ने किसी ठोस का रूप लिया और ग्रसनी में फंस गया।
भूख गायब।
प्रथम ही ग्रास अटक गया।
आँखों से आंसू निकलने लगे।
किसी तरह पानी का एक घूँट लिया और उठ कर भागा।
"अरे क्या हुआ!!"इस ध्वनि को अनसुना कर बिस्तर पर जा पड़ा।
काफी देर यूँ ही............
कोई 10वर्ष पहले किसी दूर दराज के गाँव में पोस्टिंग थी।
सरकारी क्वार्टर में रहता था।पास के ही एक भग्न क्वार्टर में कुछ बालक भी रहते थे।
शायद चार थे।चारों सगे भाई थे।सबसे बड़ा 7वीं में पढ़ता था और सबसे छोटा दूसरी में।
माता पिता कहीँ दूर पशुओं के साथ रहते थे।
मेरी "कीर्ति'' सुनकर यहाँ छोड़ गए थे।
बहुत सीधे सादे और सरल।दुनिया की जटिलता से बेखबर।
इस विश्वास से कि यह आदमी जिस पर कृपा दृष्टि डाल दे वह तो जरूर "नोकरी" लगेगा।
चारों मासूम अपने माँ बाप से दूर यहाँ खुद खाना पीना करते।पढ़ने की भरसक कोशिश करते।
सबसे बड़ा जरा मोटी बुद्धि का था।पुस्तकों को समझने में भले ही जोर आता हो,पर छोटे भाइयों को सम्भालने की उसकी प्रतिबद्धता गजब की थी। बिलकुल माँ और बाप की तरह।
मेरे प्रति चारों की श्रद्धा "उस" लेवल की थी जो आज भी कई भोले दुःखी लोग अपने अपने गुरुओं के प्रति रखते हैं।
यानि आधी रात को भी प्राण माँगूँ तो बिना एक क्षण भी विचार किये निकाल कर सामने रख दें।
और मैभी खुद को उस लेवल के "लायक" मानकर ही व्यवहार करता था।
कभी कभार निराला की जीवनी पढ़ते हुए स्वयम् को निराला मानकर उनके सामने प्रकट हो कर "और कैसे?"पूछकर निकलता तो चारों स्वयम् को धन्य महसूस करते।
मुझे भी खुद को परोपकारी मानने का काफी अत्मगोरव सा होता। बीच वाले दोनों तो "अपनी नौकरी पक्की" मान कई कई घण्टे उस "और कैसे" पर चर्चा किया करते।
पर दिन को स्कुल में जब वे पढ़ने आते तब उनकी मोटी बुद्धि, मैले कपड़े, निर्धनता जन्य पाठ सामग्री अभाव और अति सेवावृत्ति के कारण अन्य "माडसा" के लिए बेगारी वाली भागदौड़ देख कर लगता, ये बिचारे यहाँ किस जन्म की सजा काट रहे हैं।
क्या नौकरी इतनी सरल है?
मै तो इस बियाबान में अपनी आजीविका बचाने आया हूँ,पर इनकी तो कोई मजबूरी नहीँ थी।
एक बार सर्दियों की रात में सबसे छोटे वाले के बहुत देर तक रोने की आवाज आई।मेरे अंदर का निराला जागा। टॉर्च ले कर "धन्य"करने पहुँचा।
बच्चा तो चुप हो गया।बीच वाले दोनों ने हड़बड़ाकर अपनी किताबें खोल दी।
पर बड़े  को अपने अनुज पर बहुत गुस्सा आया। गुस्से से भी ज्यादा अपने श्रध्देय की शान्ति में खलल का भय और अपराधबोध।
क्या बात है? क्यों रो रहे हो?
मैने बनावटी रौबदार आवाज में पूछा।
चुपप्पी
अरे हुआ क्या?
आवाज कुछ नरम हुई।
फिर चुप्पी।
कुछ तो बताओ?
आवाज सहज हुई।
अब भी चुप्पी।
"मझले! मुझे अपना भाई समझो। तुम्हें घन्टियाल की सौगन्ध, भाऊ को बताओ।छुटकू क्यों रो रहा है?''
इस बार आवाज़ में स्नेह की लरज़ थी।
और दो नम्बर ने बताया -''सर! तीन दिन से छुटकू को बुखार है।कुछ नही खाया। बताता है लूखी रोटी नहीँ  खाऊँगा।आज भैया ने इसके लिए मिर्ची गरम की थी।पर इसने गिरा दी।कहता है,खजूर ला दो। इस पर भैया ने थप्पड़ मार दी।"
मुझे उस ठण्ड में भी गर्मी लगने लगी।
निराला मर चुका था।
++++
उस दिन शाम को मैने अपने क्वार्टर में खजूर खाई थी।गुठलियाँ फैंकने के लिए छुटकू को कहा था।
#kss

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