कई वर्ष पहले जब फ्री में अनाज वितरण शुरू हुआ था,लोगोँ ने लेने से इंकार कर दिया।
केवल भिखारी या भिखमंगी कुछ जातियों, जैसे जोगी आदि को छोड़कर कोई भी मुफ़्त का अन्न खाने की सोच भी नहीँ सकता था।
तब यदि कोई इस प्रकार की घोषणा करता तो प्रतिक्रिया होती "हमें भिखमंगा समझ रखा है क्या?"
प्राप्य वस्तु को फ्री में उपलब्ध करवाना स्वाभिमान पर हमला माना जाता था।
फिर कुछ NGO वादी आने शुरू हुए,गाँवों में।
बच्चों को इकट्ठा करके एक एक पारले जी बांटते।
और समझाते कि ये तुम्हारा "हक" है।
हक की लड़ाई के सेमिनार होने लगे।
जो फिसलते गए उन्हें जागरूक कह कर भुनाया गया।
सार्वजनिक अभिनन्दन होने लगे। हकवादी मजे करने लगे और स्वाभिमानी हाशिये पर।
पारले जी से जेबख़र्ची यानि छात्रवृत्ति।
फिर कभी पशु तो कभी टँकी।आवास भी मिलने लगे। लाखों की घोषणाएँ,हजारों का रजिस्ट्रीकरण,सेकड़ों को बुलावा और अंत में किसी एक को "हक"।
इसी को विकास माना गया।
एक बार आदत लगा दी तो हक का दायरा बढ़ता गया।
धीरे धीरे देश के महत्त्वपूर्ण सन्साधन भी हक की भेंट चढ़ने लगे।
कभी मिक्सी तो कभी कम्बल,कभी साड़ी तो कभी गहना,; यहाँ तक तो ठीक,
अब मनोरंजन और विलास की चीजें भी हक में शामिल हो गई।
आने वाले समय में बिजली पानी के साथ साथ कुछ समूहों को खुश करने के लिए देश के कुछ कुछ टुकड़े काटकर आराम से हक के लिए कुर्बान किए जाने वाले हैं।
खालिस्तान थोडा बड़ा और पुराना मामला था,
छोटे छोटे टुकड़ों के ऑफर।
आहिस्ता आहिस्ता,,,,,,,,,,देखें क्या होता है?
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015
मुफ्तखोरी
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