महानगर या महापतित?
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तुम योजना बनाते हो ग्राम के विकास की,पर वस्तुत: वो शोषण की एक मशीन होती है।
तुम खा गए कई गाँव,खेत,खलिहान,चारागाह और हरियाली।
ओरण और गोचर।
फिर भी तुम्हारा पेट नहीं भरा। तुम खाते ही जा रहे हो।
तुमने गाँव के कपास से बने वस्त्र के बदले प्लास्टिक दिया।
दूध के बदले मदिरा दी,लत सहित।
अन्न के बदले कचरे के ढेर दिए।
गाँव ने अपने हिस्से का जल दिया। बदले में तूने गाँव को गंदा नाला दिया।
तुझमें कहने को तो सभ्य बसते हैं।
पर
वास्तव में वहाँ बड़े से बड़े चोर,डाकू,लुटेरे और अपराधियों का अड्डा है।
तुझमें अच्छा भी कुछ है क्या?
इस चमचमाहट के पीछे भयंकर अँधेरा और बदबू छिपी है जो कभी भी चाँदनी नहीं बन सकती।
दुनिया भर की कुटिलताएँ और फरेब तुझसे निकलकर तेरे साथ गाँव को भी डस रही हैं,नागिन बनकर।
तू खुद को अजेय समझने के भ्रम में है।
पर मै बता दूँ,,,,,तेरी औकात क्या है?
तू तीन दिन बिना पानी के नहीं रह सकता। एक घंटा भी यदि बिजली चली जाये तो तुम्हारी हालत खराब हो जाती है।
जरा सी मंहगाई और थोड़ी भी असुविधा तुझे बर्दाश्त नहीं।
प्रकृति की थोड़ी भी मार तू सहन नहीं कर सकता।
तू इतना पंगु और परवश हो चूका है कि अपनी प्रत्येक गलती को बड़ी सफाई से छिपाकर दूसरे पर दोषारोपण करता है।
हर पल तुझे सरकार से सहायता चाहिए।
जैसे सरकार तेरी जेब में ही है।
तेरे महा विशेषण से मै नहीं डरता। सरकारें डरती है। मीडिया तेरी रखैल है मै जानता हूँ पर तुझमें इतना भी पौरुष नहीं कि तू उसका उपभोग कर सके।
सच्चाई ये है कि तू गाँव पर पलता है फिर भी उसे उजाड़ने के स्वप्न बुनता है।
तेरे अंदर दुनियाभर की बीमारियाँ घर करके बैठी है। वही बीमारी तू गाँव में भी संक्रमित करना चाहता है।
तुझमें आकर गाँव भी भ्रष्ट और विमुग्ध हो जाता है। तेरी बुद्धिवादिता पर तुझे घमण्ड है। जबकि वास्तव में तू कुछ नहीं जानता। तू एक अन्धी खाई में गिरने की तयारी कर रहा है।
गाँव को तुझपे दया आती है। स्वभाव वश।
पर वो बेचारा कर ही क्या सकता है। तूने उसकी शक्ति पहले ही छीन ली।
जो भी गाँव का बेटा तेरे पास गया,वापस नहीं लौटा। तूने यूज कर लिया।
तेरा केवल एक बेटा,मथुरा से गोकुल आया और गाँव ने उसे कृष्ण बनाकर विश्व को दिया।
तू नहीं जनता,गाँव की शक्ति।
ईश्वर तेरा कल्याण करे।
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015
महानगर
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