पूजा का अर्थ केवल गन्ध फूल चढ़ाना ही नहीं है,,,,, पूजनीय गुरुजी की इस पंक्ति को आगे बढ़ाते हैं।
किं पूजनम् ??
क्या सामीप्य?
या फिर सायुज्य?
अथवा कृतज्ञता ज्ञापन,,,???
कर्मकाण्ड का जो वैदिक स्वरूप था उसमें समय समय पर बहुत परिवर्तन हुए हैं।
वर्तमान षोडश उपचारादि बहुत बाद के हैं और क्षेत्र, सम्प्रदाय, काल के अनुसार बहुत भिन्नता वाले हैं।
आचमन, आह्वान, प्राणायाम, करन्यास, आदि कई कार्य बिलकुल उसी रूप में हो रहे हैं, जैसी शास्त्राज्ञा है,,,?
बिल्कुल नहीं।
ये सब और विधियां भी, सब परिवर्तनीय है।
परिवर्तन होते आये हैं।
उत्तर और दक्षिण की विधियों में भी अंतर है।
नवति प्रतिशत लोग कर्मकाण्ड का मर्म ही नहीं जानते।
विधि, उच्चारण, प्रसंगानुसार मन्त्र और पद्धति से अनभिज्ञ लोग आखिर करें तो क्या करें?
मेरा मन्तव्य अश्रद्धा निर्माण नहीं,
दृढ़ विश्वास निर्माण है।
यादृशी भावना यस्य,,, सिद्धि भवति तादृशी,,,,
विश्वासी बनो।
प्रचण्ड आत्मविश्वास से सम्पन्न पराक्रमी पुरूष सिंहों के उद्योग ही विधि बन जाते हैं।
कबड्डी अधिक प्रभावी है, घण्टा बजाने से।
क्रियाशील सात्विक और जितेंद्रिय नास्तिक भी हजार आस्तिकों पर भारी पड़ता है।
जड़वादी आस्तिकता, नास्तिकता ही है।
संकल्पित नास्तिकता भी आस्तिकता है।
प्रातः सन्ध्या में नियत तीन प्राणायामों की अपेक्षा, स्वामी रामदेव निर्दिष्ट पंच प्राणायाम कीजिए।
कोई आवश्यकता नहीं ताम्रपत्र और पवित्री की।
व्यावहारिक लाभ ही लाभ है।
शास्त्रोक्त अदृष्ट से अभी तुम कई योजन दूर हो!!
पहले उपयुक्त वातावरण की सृष्टि तो कर दो!!
तब तुम्हें तपोवन में बिखरे नीवार के बारे में सोचना चाहिए।
#kss
शुक्रवार, 8 सितंबर 2017
पूजा
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