शनिवार, 17 जून 2017

मूलनिवासी

एक और मन्त्र है,,,, चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा: द्वे शीर्षे सप्त हस्तासोs स्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति,,,,, बड़ा ही प्रसिद्ध मन्त्र है।
जैसा कि वेदार्थ की प्रकृति है,,,, इसके कई अर्थ है।
व्याकरण वालों का अपना अर्थ है, अग्निहोत्रीयों का अपना। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसकी विस्तृत काव्यशास्त्रीय व्याख्या की है।
दार्शनिकों ने उससे भी सुंदर व्याख्या की है।
सभी शास्त्रज्ञों ने इसकी व्याख्या अपने अपने शास्त्र को वेद सम्मत बताने को की है।
इसका शाब्दिक अर्थ है,,,,
एक बैल है, वह तीन जगह से बंधा है। उसके चार सींग है, तीन पैर है, दो सिर हैं, सात हाथ है। जो कि महा शब्द करता है।
वैयाकरणों की व्याख्या अनुसार तीन सिर ही तीन काल है। सात पैर ही सात विभक्तियाँ हैं। दो सिर, सुबन्त और तिंङन्त है।चार सींग ,,,, नाम, क्रिया, उपसर्ग, निपात आदि हैं।
खैर,,,,,,
एक बार चित्र में दी गई सिंधु घाटी मुद्रा को देखिए।
मूल चित्र net से सर्च कर ध्यान से देखिये। आपको कोई साम्य दिखता है???
इसी चित्र को उलट देने से ब्राह्मी लिपि का ॐ बन जाता है। इसको 90०बायीं ओर घुमाइए,,,, यह #देवनागरी का ॐ बन गया।
कौन कहता है सिंधु लिपि पढ़ी नहीँ जा सकती????
#सिंधुघाटी विशुद्ध आर्य सभ्यता है। सिंधुघाटी की मुद्राएं किसी न किसी वेद मन्त्र का ही चित्रण है।
वेद सिंधु सभ्यता से भी पुराने हैं।
सैन्धव ही आर्य थे। सैन्धव ही #हिन्दू थे।
मूलनिवासियों तुम्हारी ऐसी की तैसी!!
#kss

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