रविवार, 5 जुलाई 2015

वृद्ध

"जब तक यह दिव्य पुरुष जिन्दा है....अश्वत्थ वृक्ष हरा रहेगा। झरना बहता रहेगा। वर्षा होती रहेगी.......!"
इस आकाशवाणी को सुनकर  श्री "र" नाम के व्यक्ति ने सोचा.....ओह! यद्यपि समय कम है और दिव्य पुरुष मृत प्राय है, तथापि इसे बचाने के प्रयत्न करने चाहिए।
श्री "र" लग गए।अपनी समस्त शक्ति के साथ। रात-दिन एक करके, भूख प्यास पर विजय पाकर, सुख निद्रा को तिलांजलि दे, परिवार की अवहेलना कर, शीत-ग्रीष्म की गणना से विरक्त, समस्त सुविधाओं से परांमुख हो, दूसरों के उपहास सहन कर, सज्जनों की निष्क्रियता से आहत हुए बिना, विरोधियों के व्यंग्य प्रहार से विचलित न होते हुए......सचमुच....ब्रह्मा के सृष्टि निर्माण पश्चात् यह अद्भुत परिश्रम का अनुष्ठान...प्रथम बार हो रहा था।
और चार पांच गिद्ध, उनमने से अश्वत्थ की डाली पर बैठे दिव्य पुरुष की अंतड़ियोँ का इंतजार कर रहे थे।
झरने की पहाड़ी के शिखर पर कुछ भेड़ियों की आँखों में चमक थी।
बिलों में बैठे नाग अपने विषदंत तीखे कर रहे थे।
यहाँ तक कि मृत भक्षी रेंगने वाले कीडों को भी दिव्य पुरुष से "आशा" थी।
और तो और......
श्री "र" की परिचर्या से कुछ कुछ स्पंदित होते और चेतन होते, दिव्य पुरुष के अंग भी इस गुमान में थे कि यह चेतना मेरी कोशिश का परिणाम है।
हाथ का दावा था कि समस्त उत्थान का भूत भविष्य मेरा है तो सिर कुछ और ही सेटिंग में व्यस्त था।
पेट ने खराब होने का ढोँग रच रखा था तो पैर अपने को जननेन्द्रिय वाली जगह फिट करने की जुगत में लगे थे।
बड़ी अजीब सी स्थिति।
कमजोर परिवार की कलह के समान सारे अंग, एक दूसरे को ही ऊँचा नीचा बताने की जुगत में थे।
यह देखकर  "गिद्ध से कीड़ों" पर्यन्त समस्त वर्ग को ख़ुशी हुई।
श्री "र" फिर भी लगे है। अचेतावस्था के बहाने कभी हाथ का झापड़, तो कभी पैर की लात भी लगती। नाक से झरता कफ श्लेष्मा भी साफ करना पड़ता तो हर घण्टे डायपर बदलना पड़ता।
कभी मालिश हो रही है तो कभी केश संवारे जा रहे है।
और....श्री "र" की हालत.....? निद्रा, अपमान,थकान, पीड़ा, घात,आघात, सहित इस घोर कर्म से जब थकते तो एक क्षण को ऊपर की ओर ताकते.....!
डाल पर बैठा गिद्ध संकेत करता...."क्यों फालतू मथाफोड़ी कर रहे हो? आखिर तो मुझे ही देना पड़ेगा।"
#kss (6-7-15)

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