तो ये कुछ यूँ हुआ।
मैडम ने एक किताब लिखी।
#मुनमुन भाषा में। इधर का यही रिवाज है। जो भाषा आती नहीं, उसी की किताब बेस्ट मानी जाती है।
तुरन्त दैनिक #चुनचुन अखबार में समीक्षा छपी।
कोई दूर देश में हर साल #डबडब नामक पुरस्कार दिया जाता था। बड़ी चर्चा होती थी उसकी भी।
कोई कोई इसे साहित्य का सबसे बड़ा पुरस्कार भी बताते थे।
मैडम ने अप्लाय किया और मिल भी गया।
बात तुरन्त फैली। जनरल नॉलेज क्रॉनिकल में आई।
इस बार सभी अखबारों ने इस पर सम्पादकीय लिखे।
चुनचुन अखबार ने इंटरव्यू भी छापा।
देश का सबसे पहला पुरस्कार जीतने वाली साहित्यकारा,,, ब्ला ब्ला ब्ला,,,।
किताब के अनुवाद पर बजट जारी होने लगे।
यूनिवर्सिटी में सेमिनार।
पीएचडी और थीसिस।
इतर भाषाओं वाले कुंठित लेखक हाथ मलते रहे।
उन्हें अपना भविष्य मैडम के पैरों के बीच में से जाता हुआ दिखा।
मैडम अब सलाह देने लगी।
यूँ लिखो,,, ऐसा न करो वगैरह वगेरह।
कुछ समय बाद फिर एक किताब आई।
फिर पुरस्कार। फिर जी.के.।फिर इंटरव्यू।
फिर किताब,,,, चक्र घूमता रहा।
"महान्" लेखिका का कद बढ़ता गया।
उसकी काली छाया तले सब कुछ अँधेरे में डूबता गया।
एक आभासी समर्थक वर्ग खड़ा किया गया।
वे मालामाल हो गई ।
विदेश यात्रा, सेमिनार, इंटरव्यू से फुर्सत ही नहीं मिली।
बुढ़ापे में भी सक्रियता।
चेले किताबें तैयार करते, वे अपने नाम से छपवाती । बड़े बड़े सम्पर्क। अभिजात्य ठसक। बड़ी बिंदी। हर समय अपने देश संस्कृति को गरियाती। नसीहतें देतीं। उनके #निहितार्थ ढूंढने को एक पूरी फौज खड़ी थी।
अब तो वह विशेषज्ञ बन गई ।
हर मामले में उसकी राय जानने को लोग दौड़ पड़ते। वह धिक्कारती, पुचकारती, दहाड़ती, चिंघाड़ती, हिंहिनाती, चहल पहल, दबादब लगी रहती। कमसिन चेलियों का हुजूम।ओवरस्मार्ट चेले, बातूनी समीक्षक, महफिल में कहकहे,,,, यही सब कुछ चलता रहा, वर्षों तक।
एक युवा छात्र ने उस पर #आरम्भ से ही शोध करना चाहा।
बात मुनमुन भाषा पर अटक गई।
ये कौनसी भाषा है?
बहुत खोज की।जवाब न मिला।
इस नाम की कोई भाषा न मिली।
जहाँ से जवाब आना था, उन्होंने धक्के दे कर बाहर निकाल दिया।
गुमसुम लड़का, किले से नीचे उतरने लगा।
मन बहलाव के लिए कठपुतली वाले से बात करने लगा।
अचानक गुत्थी सुलझ गई।
मुनमुन भाषा तो कठपुतलियों की भाषा है!!!
#kss
मंगलवार, 4 अक्टूबर 2016
किताब
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