गुरुवार, 21 जून 2018

मूलबन्ध (मित्र से साभार)

मूलबन्ध

योग के अनुसार उपस्थ (कामोत्तेजना), वाक् (बोलना), आँख (देखना) व मन (विचार-प्रवाह) अनियन्त्रित होने पर ऊर्जानाश के प्रधानतम साधन होते हैं। अत: योग ऐसे उपाय प्रदान करता है जिनसे इनकी अनावश्यक क्रियाएँ नियन्त्रित हो जाती हैं।

दूध के दाँतों का गिरना आरम्भ हो जाने पर बालकों को अनेक प्रकार के बन्ध लगाना सिखाया जाना चाहिए। सर्वप्रथम मूलबन्ध का अभ्यास कराना चाहिए क्योंकि यह इन्द्रियनिग्रह तथा प्राणनिग्रह का प्रमुखतम साधन है। दोनों काल की सन्ध्या में तथा कामोत्तेजना का अनुभव होते ही तत्क्षण मूलबन्ध लगाना चाहिए।

गृहस्थ यदि मूलबन्ध का अभ्यास करे तो आरम्भ में निम्नोक्त में से किसी एक अवधि तक अमैथुन का संकल्प करे अन्यथा उसका अभ्यास निरर्थक है –
१. ३ दिन
२. ९ दिन
३. २१ दिन
४. ३० दिन
५. ६० दिन
६. ९० दिन

छोटे संकल्प से आरम्भ करना सदा लाभप्रद होता है।

§ मूलबन्ध के ३ चरण हैं –

१. झटके से नाक से साँस बाहर फेकिए।
वैसे ही जैसे दीपक बुझाने के लिए झटके से मुँह से साँस बाहर फेकी जाती है।

२. शिश्न, गुदा व तरेट को भीतर व ऊपर की ओर खींचकर रखें।
(If the area between the belly button and the base of penis is divided into two, the lower half is तरेट.)

३. जब साँस न रोक सकें तो शिश्न, गुदा व तरेट को ढीला छोड़ दें। साँस पर ध्यान न दें। वह स्वयमेव भीतर आ जाएगी और सामान्य हो जाएगी। तदुपरान्त कुछ क्षणों तक बिना बल लगाए बन्द आँखों से सामने की ओर देखते रहें।

बैठकर अथवा खड़े होकर (यथासुविधा यथापरिस्थिति) मूलबन्ध लगाना चाहिए। लगातार अधिकतम ३ बार मूलबन्ध लगाएँ। चलते-फिरते, बोलते-खाते कभी भी कामोत्तेजना अनुभव होने पर तत्क्षण लगाना चाहिए किन्तु पुरीषवेग के समय नहीं लगाना चाहिए।

§ यदि आँखें मूँदकर मूलबन्ध लगाएँ तो निम्नोक्त में से किसी एक स्थान पर धारणा (concentration) करें –
१. नाभि
२. खोपड़ी की छत

१. धारणा कल्पनासहित होती है। अत: कल्पना करें कि मूलबन्ध लगते ही शिश्नमूल से कोई ऊर्जा उठकर नाभि में जा रही है। इस ऊर्जा की गति का अनुभव भी होगा और यदि कामोत्तेजना हो तो वह भी शान्त हो जाएगी। मूलबन्ध सिद्ध हो जाने पर मूलबन्ध लगाए बिना केवल नाभि में धारणा कर लेने मात्र से ही शिश्नमूल से नाभि में ऊर्जा जाने लगती है।

२. खोपड़ी की छत में धारणा करते समय “शाम्भवी मुद्रा” भी लगाएँ। आँखों को ऊपर की ओर चढ़ा लेने से यह मुद्रा लग जाती है। आँखों से अनुपयोगीरूपेण सतत व्यय होने वाली ऊर्जा इस मुद्रा द्वारा उपयोगी बनकर खोपड़ी की छत में जाती है। जब यह मुद्रा सिद्ध हो जाती है तो बिना चेष्टा किए केवल इच्छा मात्र से ही लग जाती है और मूलबन्ध सिद्ध हो जाने पर केवल शाम्भवी मुद्रा लगा लेने मात्र से ही यह संसार व उसके सम्बन्ध व प्रभाव गौण हो जाते हैं तथा कामोत्तेजना भी शान्त हो जाती है।

मूलबन्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह काम का दमन नहीं प्रत्युत निग्रह करता है। वैसे तो काम-ऊर्जा हमारा उपयोग करती है किन्तु मूलबन्ध सिद्ध हो जाने पर हम काम-ऊर्जा का उपयोग करते हैं!

नम: शम्भवाय च मयोभवाय च।
नम: शङ्कराय च मयस्कराय च।
नम: शिवाय च शिवतराय च॥

योग प्रकार

योग-दिवस और हठयोग

हठयोग मुख्यत: ब्राह्मणों व पठन-पाठन-शीलों के लिए है। इसका दूसरा नाम “इन्द्रियसंयमयोग” है। यह शरीर को ज्ञान व ध्यान के योग्य बनाता है।

राजयोग मुख्यत: राजाओं व आभिजात्यों के लिए है। इसका दूसरा नाम “आत्मसंयमयोग” है। यह मन को ज्ञान व ध्यान के योग्य बनाता है।

हठयोग व राजयोग परस्पर सहयोगी होते हैं।

भक्तियोग सबके लिए है जो भावशुद्धि करता है।

कर्मयोग गृहस्थ के लिए है जो आध्यात्मिक उन्नति की कसौटी है। इसके बिना किसी साधक की उन्नति की जाँच नहीं हो सकती।

संन्यासी के लिए सांख्ययोग है जो राजयोग का ही उच्चतर रूप है।

ज्ञान व ध्यान में अनेक वर्ष लगते हैं।
हठयोग दीर्घायु व ऊर्ध्वरेता बनाता है जिससे ज्ञान व ध्यान पूर्ण होने की शक्यता बढ़ जाती है। कामविकृत ध्यानी नहीं बन सकता। ऊर्ध्वरेता होने से कामविकृतियों का जन्म नहीं हो पाता क्योंकि ऊर्ध्वरेता में इच्छाशुक्रस्खलन का सामर्थ्य होता है। शीघ्रस्खलन वाले ही कामविकृत हुआ करते हैं। हठयोग की कसौटी आसन नहीं हैं। जो ऊर्ध्वरेता नहीं है वह हठयोगी नहीं है। कोई ऊर्ध्वरेता है अथवा नहीं उसके क्रमश: ३ परीक्षण हैं – जलपरीक्षा, दुग्धपरीक्षा, घृतपरीक्षा। मूलबन्ध लगाकर शिश्न से उपर्युक्त पदार्थों को खींच लेना ही कसौटी है।

मूलबन्ध की सहायक क्रियाएँ हैं –
अश्विनी, शक्तिचालिनी, मूत्रबन्ध आदि।

शौच के उपरान्त घुटनों पर हथेलियाँ टिकाकर कुछ झुककर खड़े हों और गुदा को सिकोड़े, मन में ३ तक गिनें फिर छोड़ दें। यह अश्विनी है। २० बार करें।

अश्विनी की मुद्रा में खड़े हों किन्तु गुदा को नहीं प्रत्युत शिश्न को सिकोड़ें फिर छोड़ दें। यह शक्तिचालिनी है। ४० बार करें। अश्विनी के ठीक बाद करें।

जब भी मूत्र त्यागें मध्य में झटके से मूत्र को रोक लें। शिश्न व पेट को सिकोड़ कर रखें। मन में २० तक गिनें और शेष मूत्र त्याग दें। यह मूत्रबन्ध है। सदैव करें पर शौचवेग हो तब न करें।

चेतावनी »

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥
(गीता ३-६)

अर्थात् योगासन करते रहें और अश्लीलता भी देखते-सोचते रहें। ऐसा न करें!

अन्यथा योग पागल कर देगा! मार डालेगा!

अन्तिम चेतावनी »

हठयोग में प्रवेश करें पर गुरु के साथ!

(कमेण्ट में दी गई लिंकें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं हैं)