शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

इतिहास और वे

मेरा बचपन बहुत निर्धनता में बीता।
और उन कठिन दिनों में भी ईश्वर प्रदत्त बुद्दि ने मुझे पढ़ने की तीव्र लालसा युक्त शक्ति दी। जब जहां से कोई चिन्दी भी मिलती, जिस पर कुछ लिखा हो, मै पढ़ लिया करता।
चौथी पांचवीं में पढ़ते हुए, मैने उपलब्ध 8वीं तक की पुस्तकें पढ़ ली थी।
सहपाठियों के पास उपलब्ध "अतिरिक्त" प्रिंट सामग्री तो मेरा प्रिय आहार था।
यदि कभी कोई बड़ी पुस्तक या पुस्तकालय का मौका मिला तो मै, डूब जाता उसमें।
मेरे ताऊजी के पास भी पुस्तकों का अच्छा संग्रह था, मैने उसको छान डाला।
पुस्तकें पढ़ते पढ़ते मुझ में इतनी हीन भावना आ गई थी कि, संसार दुःखमय प्रतीत होता।
मै, सन्यासी बनने की सोचता।
इतिहास मुझे बहुत निराश करता।
खास कर मध्यकालीन इतिहास कक्षा 7 के वर्णन में ही मुझे लग गया था कि कहीं कोई भारी गड़बड़ हो रही है।
भारतीय इतिहास का जैसा मनहूस और उबाऊ चित्रण था, उसे जानकर मुझे घोर निराशा हुई।
#बाबर के आक्रमण और राणा सांगा की पराजय का वृतांत सुनकर मुझे बेचैनी होने लगी।
और प्रश्नोत्तर में हमें, बाबर के व्यक्तित्व के मूल्यांकन में उसकी विरुदावलियाँ रटाई जाती।
यह 12वर्ष के बालमन पर घोर अत्याचार था।
उसके बाद मैने, पाठ्यक्रम की जितनी भी पुस्तकें पढ़ी, उन्होंने मुझे बहुत बहुत निराश किया।
हरेक प्रकरण, ऐसा लगता मेरी शक्ति के अंश को घटाता ही जा रहा है।
हताश, निराश, कुंठित और स्वयं को बहुत अकिंचन मानते हुए, जीवन के भार को किसी तरह ढो कर चल रहा था।
न कोई उमंग न कोई तरंग।जिंदगी कटी पतंग।
सचमुच, बहुत त्रास और अपमान युक्त बचपन व्यतीत किया मैने।
जब विचार शक्ति आई, और मुझे पता चला कि हम सूर्यवंशी हैं, मैने फिर से पढ़ना शुरु किया।
यह कि किस प्रकार हमारा वंश सूर्य से आरम्भ हुआ और उसके निहितार्थ क्या हैं, जानकर मै और भीतर तक प्रविष्ट हुआ।
और, उन बातों को पाठ्यक्रम में न जानकर मुझे किसी षड्यंत्र की दुर्गन्ध आने लगी।
मैने, संस्कृत पढ़ने का निश्चय किया।
#सन्यास का विचार स्थगित कर दिया।

मै, पुस्तकों के पहाड़ पर टूट पड़ा!!
वेद से शिवराज विजय पर्यन्त, सांख्य से दयानन्द तक, और जब जो तत्व की पुस्तक दिखी, पढ़ डाली।
मुझे, #हस्तामलकवत सारा दृश्य समझ आने लगा।
मै, जान गया कि हमने बड़े बड़े साम्राज्य जीत कर दान में दे दिये थे।
मुझे सरकारों द्वारा कुछ "देने" की प्रवृत्ति पर दया आती।

हमारे पूर्वजों ने भूमण्डल को खोद कर रख दिया था, मुझे आश्चर्य होता कि आज भी कुछ लोग तालाब से एक तसल्ला मिट्टी निकाल कर चैनल से डिबेट करवाते।

मेरे, जनकों ने पूरे वंश ही धर्म रक्षा हेतु समर्पित कर दिये थे, और आज सरकार के कोई नुमाइन्दे जीप से 100किमी दौरा भर करते हैं तो उनके इस "शारीरिक" त्याग पर तालियां बजती हैं।

कभी इस देश में जीते जी अपना माँस काट कर परोपकार हेतु फेंक गया, आज नेताजी एक दिन का वेतन दे दें तो समाचार बनता है।

गायों की रक्षार्थ जिनके सिर कट गये और धड़ लड़ते रहे, उनसे सब्सिडी के फॉर्म भरवाये जा रहे हैं।
और मुझे इस प्रपञ्च पर कभी आश्चर्य नहीं हुआ।
त्याग क्या होता है और उसको कैसे किया जाता है, मै समझ चुका हूँ।
राष्ट्रभक्ति क्या है और उसे कैसे भोंथरा बनाया जाता है, मै जान चुका हूँ।
जान चुका हूँ कि कैसे, शक्कर को अल्कोहोल में बदला जाता है।
यह भी कि हवन में आहुति देने की मानसिकता वाला कैसे, यज्ञपात्र की चोरी को भी तैयार हो जाता है।
उस खेल को बहुत सूक्ष्मता से जान गया जिसमें पिंजरे में शेर डाल कर भेड़ निकाली जाती है।
इस बाजी को पलटना भी सीख गया हूँ।
।पर हे इतिहासकारों!!
तुमने, न जाने क्या सोचकर छल किया मेरे साथ।
मेरे स्वर्णिम बचपन में निराशा का जहर घोलने वाले तुम अक्षम्य हो।
मै, अतिक्रान्त कर गया तुम्हारे तिलिस्मी घेरे को, पर तुमने अपने यांत्रिक पिंजरे में करोड़ों बच्चों को उम्र भर के लिए कैद कर लिया।
हम, अपने सात पुश्तों के सम्माननीय ब्राह्मणों को गालियां देकर, तुम्हारे वाक्यों को रटते रहे और तुम हमारे ही साथ धोखा करते रहे।
तुम ने करोड़ों अपंग भ्रूण पैदा किये जो अपनी जड़ों से कट कर रीढ़ विहीन, परजीवी बन कर रेंग रहे हैं।
तुम ने मात्र अपने मनोरंजन के लिए मानसिक अपंगों की एक विशाल सेना तैयार कर दी जो रात दिन, तुम्हारे इशारे पर अपने टेढ़े, फूले हुए अंगों को वीभत्स तरीके से हिलाकर, मृत्यु का इंतजार कर रही है।
तुम, मेरे एकमात्र आश्रय स्थल की तबाही का उच्चाटन कर रहे हो, मै तुम्हारे वध का पुण्य क्यों न लूँ?
#kss

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

ऊर्जा

जब असत्य का साम्राज्य होता है तो, ऊर्जा का व्यय अधिक होता है।
शक्ति का क्षय होता है।
और पराजय होती है।

पुराने घर में, यह होता था कि बाह्य ऊर्जा का सुंदर व्यवस्थापन किया जाता था। गर्मियों में बाहरी अतिरिक्त गर्मी प्रविष्ट नहीं होती थी और सर्दियों में आंतरिक ऊष्मा बाहर निक्षेपित नहीं होती थी।
पुराने घरों में अलाव जलाने की व्यवस्था होती थी।
आधुनिक कमरों में, सर्दी में बाहरी ऊष्मा या अलाव नहीं हो पाता तो उसके लिए हीटर आदि द्वारा ऊर्जा का अतिरिक्त व्यय होता है।
गर्मी में सीमेंट की दीवार मिटटी के समान ऊष्मा कुचालक नहीं होने से, ac आदि द्वारा अतिरिक्त उर्जा का अपव्यय किया जाता था।
हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे, जो ऐसी प्रणाली विकसित कर गए कि ऊर्जा का संरक्षण होता रहे।
यह हर क्षेत्र में, सर्वव्यापक बात थी।
#सत्यमेव_जयते का वाक्य इसका ही सैद्धांतिक स्वरूप था।
सत्य को किसी अतिरिक्त संरक्षण की आवश्यकता नहीं होती।
लीपापोती में और तथ्य घुमाने में कितनी ताकत लगती है, यह सारा प्रपञ्च और तिकड़म उस असत्य के बचाव में ही तो आता है, जिसे आप पहले स्थापित कर चुके होते हैं।
जितना बड़ा संविधान, अर्थात सत्य धकेलने के उतने ही उपाय।
जितनी बड़ी बहस, अर्थात असत्य आरोपण की उतनी ही युक्तियाँ।
जितना अधिक विमर्श, सत्य से दूर भागने के उतने ही बहाने।
और #शक्ति का अपव्यय।
पहले सीमेंटेड मकान बना कर समस्या उत्पाद करना और फिर उसे मिटाने हेतु, आजीवन शक्ति व्यय करना जिससे कभी भी मुक्त चिंतन का समय ही न मिले।
आधुनिक, मजहब, जिनमें मार्क्सवाद भी शामिल है, सभी भारत के लिए अनुकूल नहीं है, उसका कारण यही है।
शक्ति तो नियत प्रमाण में ही है, और मानव आयु बहुत अल्प, अतः ये प्रयोग और प्रगति की नौटँकीयां सुख की बजाय दुःख जनती है।
यहाँ, गाय को जबरदस्ती माँसाहार खिलाने के और शेरों को धनिया-पुदीना की चटनी चटाने के खेल चालू हो चुके हैं।
इससे बीमारी फैलेगी, तब औषधि बिकेगी, और मेडिकल कारोबार मजबूत होगा, पर अंततः ऊर्जा की बर्बादी हुई और हाथ कुछ न आया।

सैक्स और भोजन की जो परिभाषा वामपंथ ने दी है, वह बहुत संकीर्ण और अप्राकृतिक है, इसलिये कि मानव एक समाजिक प्राणी मात्र नहीं है।वह animal से बहुत आगे की चीज है।
नर और मादा विभाजन से आगे भी बढ़ो।
अगली सीढ़ी के बारे में सोचो।

कन्हैया जैसे लड़कों को फंसाकर, उस प्रकरण को तूल देकर, काँग्रेस भिंडरावाला की पुनरावृत्ति कर रही है।
यह लघुपथ बाद में बहुत सी एनर्जी की मांग करेगा। आपके किसी #बड़े की आहूति भी मांग सकता है।
#kss