रविवार, 13 सितंबर 2015

भडेली वाले भेरजी

#असांजी_सिंधड़ी

1838 में अंग्रेजों ने सिंध विजय के बाद असिंचित मरुभूमि पर भी लगान लगा दी।
इस हिन्दू बाहुल्य अन उपजाऊ क्षेत्र का ठेका एक दुष्ट ने लिया जिसका नाम मुहम्मद अली था।
क्रूर और अत्याचारी मुहम्मद अली से त्रस्त जनता ने तत्कालीन #भडेली ठाकुर रतन सिंह राणा से गुहार की।
राणा रतन सिंह ने पहले तो अली को समझाया पर लगा कि ये नहीँ मानने वाला तो उसके वध का निश्चय किया। हालाँकि इसके परिणाम का उन्हें पता था और मुहम्मद अली को मारना इतना सरल भी नहीँ था।
भडेली एक छोटा सा स्थान था और राणा के पास कोई खास संसाधन भी नहीँ थे। वे एक सामान्य राजपूत का जीवन जी रहे थे।
खैर....एक दिन वे घोड़े पर सवार हो गए और मुहम्मद अली को घेर कर मार दिया।
क्रुद्ध और अपमानित अंग्रेजों ने राणा को पकड़कर फांसी दे दी।
भरी जवानी में परहित के लिए मृत्यु का वरण करने वाले राणा अमर हो गए और आज भी लोकगीतों में जब गाये जाते है तो क्या हिन्दू क्या मुस्लिम, सबके कण्ठ भर आते है और ऑंखें गीली हो जाती है।(ks)
भडेली में सदावर्त चलता रहता था।
रतनसिंह के जीवराज सिंह और जीवराज सिंह के भेरजी हुए।
सभी एक से बढ़कर एक। पराक्रमी, दाता और विद्वान्।
इन्हींभेरजी के समय की एक घटना है। एक व्यक्ति ने चोरी की और मुकर गया। लोगों ने कहा कि यदि यह भेरजी के सामने भी बोल गया तो मान लेंगे कि निर्दोष है। जब वह भेरजी की कोटड़ी आया उस समय वे अपनी सभा में चारपाई पर विराजमान थे। वहाँ तो रोज ऐसा घटनाक्रम चलता रहता था।
भेरजी स्वयं ताड़ गए कि यह व्यक्ति झूठा है। उन्होंने गरजकर उस आदमी को दूर रहने की चेतावनी दी...!
आस पास वालों को कहा कि इस आदमी को मेरी आँखों से दूर ले जाया जाये।
पर इस सबके बावजूद उसने भेरजी की चारपाई को छू ही लिया...!
"यह ठीक नहीँ हुआ...!" भेरजी ने खिन्न मन से कहा। और उसी रात उस झूठे व्यक्ति की मृत्यु हो गई।
सच्चरित्र और तपस्वी की झूठी साक्षी भर किसी की मौत के लिए पर्याप्त होती थी।
राजपूत सिर विहीन भी लड़ते थे। इसी सत्वके कारण। इष्ट पालन के कारण।
इस सत्य घटना का प्रत्यक्षदर्शी तो हमारा परिवार ही था।
भेरजी के सोहन जी और उनके सवाई सिंह हुए।जो हिन्दुस्थान आये। सवाईसिंह जी के पुत्र स्वरूप सिंह, जोधपुर में प्रसिद्ध वकील थे जिनका स्वर्गवास कुछ समय पहले हुआ।
आपने और मैने भी, कई लोग ऐसे देखे होंगे जो अचानक अज्ञात मानसिक रोग के शिकार हो जाते है जो कभी समझ नहीँ आते।
अच्छे भले लोग अचानक ऐसे गिर जाते है कि कभी ठीक नहीँ होते।
उसका रहस्य बताता हूँ।
वे सब अनिष्ट आहार से ऐसे होते है। विशेष कर वह परिवार जिनमें सात्विक आचरण पर विशेष बल दिया जाता है....कभी किसी अज्ञात जगह धोखे से ऐसा आहार कर जाते है कि उनका इष्ट उसकी अनुमति नहीँ देता।
मेरा एक ड्राईवर मित्र मुम्बई गया। वहाँ हाईवे के किनारे किसी होटल में भोजन किया। होटल किसी गैर की थी।उसने धोखे से गोमांस वाले चम्मच से परोसा और उसी दिन से ऐसा बीमार पड़ा कि अंततः एक दिन आत्महत्या कर ली।
प्राण देकर भी इष्ट रक्षा करने वाले राजपूतों में इतना तेज होता था कि उनके सामने आने मात्र से  व्यक्ति मर जाता था।
उसकी घिग्गी बन्ध जाती थी।अन्याय की तो कल्पना भी नहीँ की जा सकती।
मेरे पिताजी अक्सर #भडेली_वाले_भैरजी की बात सुनाते थे।
राणा रतनको तो धाट के घर घर में सुना जाता है।
धन्य है सुरताण सोढा, जिनके कुल में भेरजी जन्मे।
#ks

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

सेवा धर्मो परम् गहनो.....

कुछ यादें ऐसी भी
जब पहली पोस्टिंग हुई तब काफी दूर और नए लगने वाले स्थान पर लगाया गया था।

वहाँ बकरी पालन मुख्य व्यवसाय होता था। जरा जरा सी बात पर बकरा काटा जाता था। खूब प्रचलन था। उनके लिए मांसाहार आलू शब्जी से भी सस्ता था। हालाँकि मै मांसाहार नहीँ करता था पर घुलने मिलने के लिए हर उत्सव में शामिल होता था।
शादी ब्याव में खास कर बाहर से आने वाले मेहमानों का अध्ययन करने पर पता चला..... बाहरी लोग मांसाहार के लिए मरे मरे जाते थे।
यूँ भी दारू मांस और बीयर कितना भी लाओ, शॉर्टेज बनी ही रहती है।
पता नहीँ क्या रखा है इस हड्डी वाले भोजन में, कितना भी परोसो, थाली भरी पड़ी हो तो भी खाने वाले का मन नहीँ भरता।
परोसने वाले को बड़ी हसरत भरी नजर से देखा जाता है....!!
एक और बात नोट की कि अधिक दारू और माँस सेवी वाले लोग स्वभाव से आलसी, कायर, कामोपभोग के इच्छुक और शेखी बघारने वाले थे।
आजकल तो सम्पर्क में नहीँ हूँ, पर उन दिनों इसका सेवन करने वाले ज्यादातर लोग केवल इसलिए ज्यादा खाते थे कि इसके सेवन से #वो पावर बढ़े। अपनी भी शोध दृष्टि रही है। कुछ पीछा करने पर पता चला कि इनका पारिवारिक जीवन सन्तुलित तो कत्तई नहीँ।
साहब कहीँ और मुँह मारते है तो मैडम कहीँ ओर...!
फिर कुंआरे और बच्चे भी मरे जाते थे.....खैर...आसुरी आहार है ही ऐसा।
दूसरी याद अफीम के बारे में है। उधर खूब प्रचलन था। मिलिट्री एरिया था।  कई फौजी भी छुट्टी जाते समय थोड़ा अफीम घर ले जाने की डिमांड करते रहते थे। थोड़ा बहुत ले भी जाते थे।
अफीम की लत वाले लोग लाख तर्क दें......इनका भी मामला उस टाइप का ही रहा होगा।
स्कूल में दो तीन टीचर sc वर्ग के थे। वे अपना पीना पिलाना स्कूल में ही निपटाते।
उन दिनों जब 31मार्च को दारू ठेके बन्द होने वाले होते और शराब सस्ती होती थी तो मुझे याद है उन्होंने अपनी सेलेरी से खरीदकर एक कमरा ही भर दिया था दारू के कार्टन से।
ये बन्धु कहीँ बाहर से अप डाउन करते थे। मै वहीँ क्वार्टर में रहता था। एक बार एक टीचर ने अपने घर पर इतनी ज्यादा पी ली कि देहरी लांघते समय गिर गया और  दोनों पैरों की  हड्डियां टूट गई। एक महीने cl pl और ml से चला फिर तय हुआ कि वे मेरे पास क्वार्टर में रहेंगे।
मै भी आदत से मजबूर, उनकी बहुत सेवा करता था। सबसे कठिन मामला था उनका टॉयलेट जाना। उसके लिए एक कुर्सी में छेद करके शौचालय में फिट किया गया।
वे शौच जाकर बाहर आते तब मै उन्हें बैशाखी पकड़ाता। फिर पानी आदि डालने का स्वच्छता कार्य मुझे ही करना पड़ता। बाल्टी भरना, स्नान कराना आदि सभी कार्य बहुत श्रद्धा भाव से करता क्यों कि वे मुझसे सीनियर थे।
पर कुछ दिन बाद मैने नोट किया कि शौचालय में गन्दगी का बिखराव ज्यादा ज्यादा होने लगा।
हालाँकि अपुन गांधी बा को पढ़े थे और निर्लिप्त निर्विकार भाव से सेवा कर दिया करते। फिर तो बिखराव दिनों दिन बढ़ता गया।
एक बार वे छुट्टी में घर गए। वहाँ वैसी सेवा नहीँ होने पर उन्होंने अपने जवान लड़के की कलाई पर बैशाखी दे मारी और उसका हाथ फैक्चर हो गया।
लंगड़ी हालत में भी वे महफ़िल सजाना नहीँ भूले। क्वार्टर पर ही दो तीन मिलकर पार्टी मनाने लगे।
एक बार पीकर टुन्न होने के बाद उन्होंने अपने साथियों पर एक रहस्य खोला।
"ये लड़का मेरी खूब सेवा करता है। टॉयलेट साफ करता है। अब राजपूत कोई और मेरा टॉयलेट साफ करे इससे ज्यादा मजा क्या आता होगा? मेरा तो जीवन ही सफल हो गया। आजकल मै जान बूझकर कुर्सी से हिल डुल कर ज्यादा गन्दगी बिखेरता हूँ, ताकि ज्यादा मजा आ सके।"
बात मैने सुन ली।
सेवा करने का मेरा नशा उतर गया। और उसका तो खैर उतरना ही था।
#kss