शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

सेवा धर्मो परम् गहनो.....

कुछ यादें ऐसी भी
जब पहली पोस्टिंग हुई तब काफी दूर और नए लगने वाले स्थान पर लगाया गया था।

वहाँ बकरी पालन मुख्य व्यवसाय होता था। जरा जरा सी बात पर बकरा काटा जाता था। खूब प्रचलन था। उनके लिए मांसाहार आलू शब्जी से भी सस्ता था। हालाँकि मै मांसाहार नहीँ करता था पर घुलने मिलने के लिए हर उत्सव में शामिल होता था।
शादी ब्याव में खास कर बाहर से आने वाले मेहमानों का अध्ययन करने पर पता चला..... बाहरी लोग मांसाहार के लिए मरे मरे जाते थे।
यूँ भी दारू मांस और बीयर कितना भी लाओ, शॉर्टेज बनी ही रहती है।
पता नहीँ क्या रखा है इस हड्डी वाले भोजन में, कितना भी परोसो, थाली भरी पड़ी हो तो भी खाने वाले का मन नहीँ भरता।
परोसने वाले को बड़ी हसरत भरी नजर से देखा जाता है....!!
एक और बात नोट की कि अधिक दारू और माँस सेवी वाले लोग स्वभाव से आलसी, कायर, कामोपभोग के इच्छुक और शेखी बघारने वाले थे।
आजकल तो सम्पर्क में नहीँ हूँ, पर उन दिनों इसका सेवन करने वाले ज्यादातर लोग केवल इसलिए ज्यादा खाते थे कि इसके सेवन से #वो पावर बढ़े। अपनी भी शोध दृष्टि रही है। कुछ पीछा करने पर पता चला कि इनका पारिवारिक जीवन सन्तुलित तो कत्तई नहीँ।
साहब कहीँ और मुँह मारते है तो मैडम कहीँ ओर...!
फिर कुंआरे और बच्चे भी मरे जाते थे.....खैर...आसुरी आहार है ही ऐसा।
दूसरी याद अफीम के बारे में है। उधर खूब प्रचलन था। मिलिट्री एरिया था।  कई फौजी भी छुट्टी जाते समय थोड़ा अफीम घर ले जाने की डिमांड करते रहते थे। थोड़ा बहुत ले भी जाते थे।
अफीम की लत वाले लोग लाख तर्क दें......इनका भी मामला उस टाइप का ही रहा होगा।
स्कूल में दो तीन टीचर sc वर्ग के थे। वे अपना पीना पिलाना स्कूल में ही निपटाते।
उन दिनों जब 31मार्च को दारू ठेके बन्द होने वाले होते और शराब सस्ती होती थी तो मुझे याद है उन्होंने अपनी सेलेरी से खरीदकर एक कमरा ही भर दिया था दारू के कार्टन से।
ये बन्धु कहीँ बाहर से अप डाउन करते थे। मै वहीँ क्वार्टर में रहता था। एक बार एक टीचर ने अपने घर पर इतनी ज्यादा पी ली कि देहरी लांघते समय गिर गया और  दोनों पैरों की  हड्डियां टूट गई। एक महीने cl pl और ml से चला फिर तय हुआ कि वे मेरे पास क्वार्टर में रहेंगे।
मै भी आदत से मजबूर, उनकी बहुत सेवा करता था। सबसे कठिन मामला था उनका टॉयलेट जाना। उसके लिए एक कुर्सी में छेद करके शौचालय में फिट किया गया।
वे शौच जाकर बाहर आते तब मै उन्हें बैशाखी पकड़ाता। फिर पानी आदि डालने का स्वच्छता कार्य मुझे ही करना पड़ता। बाल्टी भरना, स्नान कराना आदि सभी कार्य बहुत श्रद्धा भाव से करता क्यों कि वे मुझसे सीनियर थे।
पर कुछ दिन बाद मैने नोट किया कि शौचालय में गन्दगी का बिखराव ज्यादा ज्यादा होने लगा।
हालाँकि अपुन गांधी बा को पढ़े थे और निर्लिप्त निर्विकार भाव से सेवा कर दिया करते। फिर तो बिखराव दिनों दिन बढ़ता गया।
एक बार वे छुट्टी में घर गए। वहाँ वैसी सेवा नहीँ होने पर उन्होंने अपने जवान लड़के की कलाई पर बैशाखी दे मारी और उसका हाथ फैक्चर हो गया।
लंगड़ी हालत में भी वे महफ़िल सजाना नहीँ भूले। क्वार्टर पर ही दो तीन मिलकर पार्टी मनाने लगे।
एक बार पीकर टुन्न होने के बाद उन्होंने अपने साथियों पर एक रहस्य खोला।
"ये लड़का मेरी खूब सेवा करता है। टॉयलेट साफ करता है। अब राजपूत कोई और मेरा टॉयलेट साफ करे इससे ज्यादा मजा क्या आता होगा? मेरा तो जीवन ही सफल हो गया। आजकल मै जान बूझकर कुर्सी से हिल डुल कर ज्यादा गन्दगी बिखेरता हूँ, ताकि ज्यादा मजा आ सके।"
बात मैने सुन ली।
सेवा करने का मेरा नशा उतर गया। और उसका तो खैर उतरना ही था।
#kss

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