1977-78 के वर्ष भयंकर अकाल पड़ा...मरुभूमि में।
चनण सिंह के कुल 250 गायें थीं।
आवतु सुथार की 40, कुम्हार की 10, नाई की 20, महाराज(पालीवाल जी) की 150 गायें, सोढा परिवार की 500 और चैन सिंह की 100थी।
कार्तिक आते आते घास खत्म....कुत्ते कुकाट करते और रिवड़ी की तीनों तलैयाँ सूख चुकी थी।
माताजी के सारे गहने...सोना चाँदी आदि बिक चुके थे।और....तय हुआ कि गायों को यहाँ से 300किमी दूर हाकड़ा तले(कुए) पर ले जायेंगे।
हाकड़ा तलासूना था....1965 के युद्ध में उसके मालिक उनड़ मुसलमान सिंध भाग चुके थे।सूखी सेवण घास बहुत थी और पानी कुछ कुछ खारा था।
दो गधे...तीन ऊंट....और 5 पुरुष....पांच पुरुषों में भी चैनसिंह तो 15वर्ष का लड़का ही था...एक हजार से ज्यादा गायें लेकर हकड़ा पहुँचे। एकदम पाक बोर्डर पर।
रायधरों का गवाड़ पहले ही वहाँ पहुंच चुका था। हजारेक गायें उनकी थी।
सूना कुंआ आबाद हो गया....!एक दिन छोड़ के एक दिन के अंतराल से अपने गवाड़ का नम्बर आता।ऊँटों से पानी निकाला जाता।60पुरुष(160फीट)गहरे कुंए से 2बजते बजते सारी गायें पानी पी चुकी होती।
बाद में रोटियां बनती....खेजड़ी के नीचे... बड़ी कठोर दिनचर्या थी...!कुछ कुछ गायों ने ब्याना शुरू किया...दूध में रोटी और बछडों के लिए पखाल में पानी....चैत्र के बाद गर्मी बढ़ी...पानी के चड़स ज्यादा निकालने होते...ज्यादा दबाव सहन नहीँ कर सकने से एक ऊंट मर गया।
तुरन्त सबके कानों के गोखरू(एक गहना) इकट्ठे कर साढ़े सात तोले सोने के बदले....रामगढ़ से दूसरा ऊंट खरीदा गया।
#kss
आषाढ़ आते आते बादल आने लगे।कहीँ कहीँ बरसात होने के समाचार आने लगे।.....लगभग आधी गायें मर चुकी थी।
कमोबेश सारे #खडाल की यही स्थिति थी। रामगढ़ के वैश्य वर्ग ने कई मण सोना चाँदी जुटा लिया था...और अब मद्रास जाने की तैयारी में थे।(बाद में वे वहाँ गए और बड़े मारवाड़ी सेठ बन गए।)
आधे आषाढ़ की किसी अँधेरी रात में चमकती बिजली से अंदाजा किया गया कि यह बरसात रिवड़ी पर हो रही है। तैयारियां की गई....गायों के कान में कहा गया "हल भटारि अपणे देश....!"
गायें सुबह होते होते तैयार थी....पूरे गवाड़में घर जाने का उत्साह...दिन भर चलते रहे।
शाम को सतारवाली पर डेरा दिया।गायों ने पालर पाणी पिया।गधों से भार उतारा।
रोटी बनाने का समय नहीँ था।
तपेली में दूध गर्म कर पी रहे थे।
अमावस की उमस भरी रात थी। अँधेरा.....उमस....भयंकर गर्मी...बिजलियों की चमक के बीच....चनण सिंह के पेट में दर्द उठा और क्षण भर में तड़पते हुए प्राण त्याग कर गए।
कई दिन से पीलिया बुखार था...उमस और गर्म दूध ने जहर का काम किया....सब कुछ खत्म।
चैन सिंह की रुलाई सुन कर गायें डहाकने लगी।रात भर कोहराम मचा रहा। सबसे ज्यादा सदमे में गायें और ऊँट थे।खाना पीना छोड़ दिया।सब कुछ अस्तव्यस्त हो गया।एक एक कर सारे पशु धड़ा धड़ प्राण देते जा रहे थे....मानो प्रिय स्वामी के पथ का अनुसरण करना इनके लिए भी जरूरी हो!!
इधर ......आँगन में लाश आई और उसी समय चनण सिंह की पत्नी को प्रसव हुआ।.....ऊंट....गायें...कुछ न बचा।
और उधर......दिल्ली यूनिवर्सिटी के वामपंथी अपने सेमिनारों में जी भर कर सामन्तों को गालियां दे रहे थे।
एक इंच भी जमीन न होते हुए भी...चनण सिंह सामन्त था।उसको उखाड़ फैंकने की अपीलें हो रही थी। आग उगलती किताबें छप रही थी।पाठ्यक्रम में जनवादी लेखन के बहाने., चनण सिंह को जड़ मूल से उखाड़ने की प्रतिज्ञा करते वृतांत परोसे जा रहे थे।
प्रगतिशील कवियों की मानें तो चनण का अभी अभी जन्मा शिशु.#. #एक_सपोला है जो क्रांति की चिंगारी लाने में सहायक है।
सुथार, नाई और महाराज ने अपनी अपनी बची गायें सम्भाली।
सामने बुनकरों के मुहल्ले में सर्वोदयी सत्संग चलता और इधर एक #सामन्त अपनी माँ के सूखे हृदय में दूध खोजता बिलबिलाता।
#kss
सोमवार, 8 जून 2015
राजपूत
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