बुधवार, 23 जुलाई 2025

हठयोग

हठयोग का आधारभूत नियम क्या है?

§ उत्तर

हठयोग को शिव द्वारा प्रवर्तित माना जाता है। हठयोग में देशी गाय के दूध, दही व घी आदि का विशेष महत्त्व है।

हठयोग मनुष्य के शरीर पर और उसकी शारीरिक प्रकृति पर आधिपत्य का योग है।

हठयोग आदर्श स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य और अलौकिक शक्तियों को प्रदान करता है।

योगियों का मत है कि रुग्ण, अव्यवस्थित व असंतुलित शरीर की तुलना में स्वस्थ व सहज शरीर अधिक सरलतया बुद्धि व चैतन्य के आदेशों का पालन करता है क्योंकि कोई नहीं जान सकता कि अस्वस्थ शरीर में कब क्या समस्या आन पड़े। अत: अस्वस्थ शरीर की तुलना में स्वस्थ शरीर की उपेक्षा करना अधिक सरल होता है जबकि अस्वस्थ शरीर की अधिक देख-भाल करनी पड़ती है और उस पर अधिक ध्यान देना पड़ता है।

अत: हठयोग का प्रथम उद्देश्य है— स्वस्थ शरीर।

इसके अतिरिक्त योगियों का यह भी मत है कि अलौकिक शक्तियों का जागरण होने पर शरीर पर जबरदस्त तनाव व दबाव पड़ता है और यदि विशिष्ट अभ्यासों द्वारा भौतिक शरीर को प्रशिक्षित व तैयार नहीं किया गया है, जैसा कि यह अपनी सामान्य दशाओं में होता है, तो यह उन दबावों को झेल नहीं पाता और उन अंगों की गहन सक्रियता के साथ सामञ्जस्य नहीं रख पाता जो अलौकिक शक्तियों का जागरण होने पर अवश्यम्भावी है। नवीन शक्तियों का जागरण होने पर विशेषरूपेण हृदय, मस्तिष्क, तन्त्रिका-तन्त्र व कुछ अन्य अंगों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है।

हठयोग के अनुसार सामान्यतया शरीर के पृथक् अंग प्राय: स्वतन्त्ररूपेण कार्य करते हैं और पृथक् क्रियाशीलता व संवेदनशीलता रखते हैं जो सभी मनुष्यों में समान नहीं होती। अत: प्रत्येक अंग के लिए पृथक्-रूपेण कार्य करना आवश्यक है। एतदर्थ योगियों द्वारा विविध आसन, प्राणायाम, बन्ध, षट्कर्म आदि आविष्कृत किए गए जिनकी एक निश्चित संख्या है।

हठयोगी श्वास को रोकने मात्र से किसी भी शारीरिक क्रिया को रोक सकते हैं और उसी दशा में बिना किसी हानि के दीर्घकाल तक बने रह सकते हैं। वे हृदयगति को रोक सकते हैं और उसे पुन: आरम्भ भी कर सकते हैं। वे इच्छाशुक्रस्खलन में समर्थ होते हैं अर्थात् वे जब तक चाहें तब तक शुक्रस्खलन नहीं होगा। हठयोगी अपनी प्राणशक्ति से स्वयं की व अन्यों की भी शारीरिक व्याधि को दूर करने में समर्थ होते हैं आदि इत्यादि।

शरीर के विषय में योगियों का यह आधारभूत सिद्धान्त है कि शरीर को उसकी प्राकृतिक दशा में किसी भाँति एक आदर्श उपकरण नहीं कहा जा सकता जैसा कि सामान्यतया उसे मान लिया जाता है। इस कारण शरीर के विभिन्न अंगों की क्रियाओं के नियमन व नियन्त्रण के लिए योगियों ने अनेक नियम विकसित किए। योगी मानते हैं कि शरीर स्वत: उत्थान नहीं कर सकता क्योंकि सहजवृत्तियाँ (instincts) अपनी क्रियाओं को पर्याप्त निर्देशित नहीं कर पातीं। अत: बुद्धि का बीच में पड़ना आवश्यक है।

हठयोग का आधारभूत नियम यह है कि
हठयोग की क्रियाओं को उसी “क्रम” में करना चाहिए
जो अपने “शारीरिक प्रकार” के अनुरूप हो (in accordance with one's physical type)!

हठयोग अधिष्ठान-भेद (शरीर-भेद) पर आधारित है।
अर्थात् समस्त मनुष्यों के कुछ निश्चित प्रकार हैं और प्रत्येक प्रकार के लिए एक पृथक् क्रम आवश्यक है। प्रत्येक मनुष्य किसी एक अथवा कुछ आसनों को अन्यों की तुलना में अधिक सरलता से कर सकता है। किन्तु सामान्य मनुष्य न तो अपने “शारीरिक प्रकार” (physical type) को जानता है और न ही यह जानता है कि कौन-से आसन उसके लिए सरल हैं और किनसे उसे आरम्भ करना चाहिए। इसके अतिरिक्त वह उन “आरम्भिक अभ्यासों” (peparatory exercises) को भी नहीं जानता जो प्रत्येक आसन के लिए पृथक् हैं और प्रत्येक “शारीरिक प्रकार” के लिए भी पृथक् हैं।

हठयोग का “पूर्ण ज्ञान” रखने वाला गुरु ही उसके लिए यह सब निर्धारित कर सकता है।

शिष्य का एक निश्चित समय तक निरीक्षण करने व कुछ निश्चित परीक्षण अभ्यासों (trial exercises) को कराने के उपरान्त गुरु उसके “शारीरिक प्रकार” को निर्धारित करता है और उसे बताता है कि किन आसनों से उसे आरम्भ करना चाहिए।

वह आसन निर्धारित हो जाने के उपरान्त, जिस पर शिष्य को कौशल अर्जित करना है, गुरु उसे कुछ विशिष्ट व क्रमिक अभ्यास करने को देता है जिन्हें वह उसके लिए प्रदर्शित भी करता है। इन अभ्यासों से उसका आसन “सिद्ध” हो जाता है
अर्थात् वह उस आसन की अपेक्षित मुद्रा को धारण करने में और एक निश्चित समय तक उसे बनाए रखने में समर्थ हो जाता है।

यही प्रक्रिया अगले आसन के लिए भी दोहराई जाती है।

एक अनुचित आसन (क्रम अथवा विधि की दृष्टि से) की चेष्टा असाध्य शारीरिक कष्टों को उत्पन्न कर सकती है। इसी कारण कहा गया है—
देखा-देखी साधै जोग। छीजै काया बाढ़ै रोग॥

अत: यह पूर्णतया स्पष्ट है कि हठयोग का अभ्यास किसी समर्थ व सुविज्ञ गुरु के बिना अशक्य ही है और इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा से स्थायी स्वास्थ्य-हानि भी हो सकती है।

योगियों का यह भी मत है कि
कुछ विशिष्ट प्रकार के मनुष्यों को राजयोग में एक निश्चित दक्षता अर्जित कर लेने के उपरान्त ही हठयोग का आरम्भ करना चाहिए

जबकि कुछ अन्य विशिष्ट प्रकार के मनुष्यों को हठयोग में एक निश्चित दक्षता अर्जित कर लेने पर ही राजयोग में प्रवेश करना चाहिए

तथा कुछ विशिष्ट प्रकार के मनुष्यों को हठयोग व राजयोग का अभ्यास एक-साथ ही करना चाहिए।

यह विशेषरूपेण ध्यातव्य है कि हठयोगी व तापस भिन्न होते हैं क्योंकि कभी-कभी उन्हें समान समझ लिया जाता है। वस्तुत: तापस हठयोगियों का अर्ध-अनुकरण करते हैं। तापस अपनी क्रियाओं द्वारा प्राय: अपने शरीर को हानि पहुँचा लेते हैं जिसे आयुर्वेद की दीर्घकालिक चिकित्सा व हठयोग की सहायता से दूर करने का प्रयास किया जाता है और कभी-कभी पूरा सुधार हो ही नहीं पाता!

ये कैसा इतिहास

अपनी उपाध्याय की पदवी को यदि किसी ने आज के समय सार्थक किया है साबित किया है तो वह आदरणीय Arun Upadhyay जी हैं ।
उनके लेख उनकी विराट प्रज्ञा का प्रमाण देते हैं एवम् हम जैसों को बहुत कुछ शिक्षा देते है अतः प्राचीन समय के  वास्तविक उपाध्याय  ही प्रतीत होते हैं जिन्होंने पुनः जन्म लिया ।
बार बार नमन है उनको उनकी लेखनी को मॉ सरस्वती को !

ध्यानाकर्षण हेतु उनका आज का लेख !

विपरीत शिक्षायें-

अंग्रेजी शासन काल में सभी विषयों में तथ्यों के विपरीत शिक्षा दी गयी। बचपन से वही पढ़ने के कारण सही बात समझना असम्भव हो जाता है। कुछ उदाहरण-
(१) भारतीय पुराणों में इन्द्र को पूर्व दिशा का लोकपाल कहा गया है। पर पढ़ाया गया कि आर्य लोग पश्चिम से आये और उनके मुख्य देवता इन्द्र थे। लोकपाल रूप में इन्द्र मनुष्य थे और मनुष्यों का भी एक वर्ग देव कहलाता है।
(२) भारत के इतिहास का एकमात्र स्रोत पुराण है। उसी से नकल कर उसकी काल गणना को झूठा कहा गया। इसके लिये एक मुख्य काम हुआ कि जितने राजाओं ने अपने शक या संवत् आरम्भ किये उनको काल्पनिक कह दिया। केवल शिलालेखों को प्रामाणिक माना, उनकी तिथियों को सावधानी से नष्ट कर के। केवल राजस्थान में ही कर्नल टाड ने ३०० पट्टे नष्ट किये थे। कहा जाता है कि राजाओं के पट्टे या लेख ही एकमात्र स्रोत हैं। मौर्य अशोक के २४ शिलालेख हैं (कुछ कश्मीर के अशोक के भी हैं)। वह अपने अन्त या भविष्य के राजाओं के शासन काल के विषय में कैसे लिख सकता है?
(३) वेद में भी लोकों का जो वर्णन है उसका आधार पुराण ही है। अतः वेद में भी पुराणों का उल्लेख है। पर अंग्रेजी प्रभाव में प्रचार हुआ कि वेद सत्य हैं, और पुराण झूठे हैं जिससे किसी को भारत के इतिहास और शास्त्रों का ज्ञान नहीं हो सके।
(४) पिछले ५१०० वर्षों से भागवत माहात्म्य में यह कहा जा रहा है कि ज्ञान और वैराग्य का जन्म द्रविड़ में हुआ, वृद्धि कर्णाटक में हुयी और विस्तार महाराष्ट्र गुर्जर तक हुआ। पर कहते हैं कि उत्तर भारत के आर्यों ने दक्षिण पर वेद थोप दिया। ऋग्वेद के पहले ही सूक्त में दोषा-वस्ता (रात-दिन) का प्रयोग है जो केवल दक्षिण में प्रचलित है। प्राचीन पितामह सिद्धान्त (स्वायम्भुव मनु काल) के अनुसार बार्हस्पत्य वर्ष दक्षिण में प्रचलित है। बाद के सूर्य सिद्धान्त (वैवस्वत मनु काल का) के अनुसार उत्तर भारत में प्रचलित है। वेद में भी ब्रह्म और आदित्य २ सम्प्रदाय हैं।
(५) मुण्डकोपनिषद् के आरम्भ में ही कहा है कि पहले एक ही वेद था जिसे अथर्व वेद कहते थे। इसी का विभाजन ४ वेदों और ६ वेदाङ्गों में हुआ। पर प्रचार होता है कि ऋग्वेद पहले हुआ और उसके बाद २-२०० वर्ष बाकी वेदों का रचनाकाल मान लिया। ऋग्वेद में ही यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद तथा पुराण का भी उल्लेख है।
(६) वेदों के विभाजन का आधार मूर्ति-गति-महिमा-ब्रह्म (पूर्ण विश्व) है। पर प्रचार हुआ कि ऋग्वेद में मूर्त्ति या उसकी पूजा का विरोध है। यदि मूर्ति नहीं हो तो कोई वर्णन नहीं होगा न कोई दृश्य अक्षर या शब्द होंगे जिसमें कहा जा सके।ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण,३/१२/८/१)
(७) भारत की सभी बातों की निन्दा के लिये वर्णाश्रम, पूजा पद्धति का विरोध हुआ। आज तक विश्व में कोई ऐसा देश नहीं हुआ जहां सभी एक ही जाति या वर्ण के लोग हुये हों। केवल एक जाति का समाज एक दिन भी नहीं चल सकता है। अन्य देशों में जाति-धर्म के आधार पर व्यापक नरसंहार हुआ है। केवल भारत में ही अकबर के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार १०००-१५२६ में भारत में ८ करोड़ हिन्दुओं की हत्या हुयी (युद्ध छोड़ कर)। अंग्रेजी शासन में केवल १८५७ के विद्रोह का बदला लेने के लिये १ करोड़ से अधिक लोगों की हत्या हुई। गंगा-यमुना के किनारे के अधिकांश नगर और गांवों के ९०% लोगों की हत्या हुई। इसके अतिरिक्त १० लाख लोग बाहर भेजे गये। व्यवसाय समाप्त होने के कारण कई जातियां गरीब हो गयीं। पर आक्रमनकारियों ने नर संहार कर भारत के ही सबसे गरीब वर्ग पर इसका दोष थोप दिया ज्जो आज तक वर्ग द्वेष का कारण बना हुआ है। अंग्रेजों ने उत्तर और दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया की सम्पूर्ण आबादी की हत्या कर दी तथा अफ्रीका की २०% आबादी को गुलाम बना कर बेच दिया जिसमें ८०% रास्ते में ही मर गये थे। पर उनको केवल भारत में अत्याचार दीखता है।
(८) पुराणों में सौरमण्डल, ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी), दृश्य जगत् आदि के स्तरों का विस्तार से आकार दिया है और उतनी सूक्ष्म माप आज तक नहीं हो पायी है। पर कहते हैं कि पूरी पृथ्वी के बारे में नहीं मालूम था और पृथ्वी के सभी ७ द्वीपों और अनन्त द्वीप को एशिया-यूरोप में ही मानते हैं। बिना पृथ्वी की पूर्ण माप हुए चन्द्र की भी दूरी नहीं निकल सकती।
(९) ग्रहण की सूक्ष्म गणना बहुत प्राचीन काल से हो रही है और जितने दान के पट्टे हैं वे सूर्य ग्रहण काल में ही दिये गये है। कोई भी गणित या भौतिक विज्ञान का प्राध्यापक ऐसा नहीं है जो ग्रहण की गणना समझ सके। १९८५ में मास्को के अन्तर्राष्ट्रीय ज्योतिष सम्मेलन में रूस के प्रो. अम्बरसौम्यन ने कहा था कि ७००० वर्ष पहले लोग गणना कर लेते थे, पर उस सम्मेलन में उपस्थित २०० विद्वानों में एक भी व्यक्ति गणना नहीं कर सकता। पर लोग विवाद करते हैं कि भारतीयों को पृथ्वी के गोल आकार का पता नहीं था।
(१०) जो भी शिलालेख या वर्णन मिलता है उसका उलटा इतिहास लिखते हैं। मेगास्थनीज ने पलिबोथ्रि नगर यमुना के किनारे लिखा है, उसे बिहार में गंगा तट पर पटना बना दिया है। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान के अशोकावदान में लिखा है कि कलिंग विजय के बाद बौद्धों की शिकायत पर उसने १२००० जैन साधुओं की हत्या कर दी। पर प्रचार होता है कि हिंसा का त्याग करने के लिये उसने बौद्ध धर्म ग्रहण किया मानों उसके पहले भारत के लोग अंग्रेजों की तरह नर संहार करने वाले थे। ओड़िशा के पाण्डुवंशी राजाओं के मुरा-शासन के ५० पट्टे प्रकाशित हैं जिनके अधिकारियों को मौर्य कहते थे। इन मौर्यों ने बाद में नन्द राज्य पर कब्जा किया। पर मौर्य अशोक का कलिंग पर अधिकार विदेशी आक्रमण मानते हैं। १८६६ में पूरा अन्न बाहर भेज कर ओड़िशा के ३५ लाख लोगों की हत्या करने वाले रेवेनशा को ओड़िशा का उद्धार करने वाला मानते हैं। आन्ध्र प्रदेश के गौरव का विदेशी प्रमाण पत्र लेने के लिये कहते हैं कि मेगास्थनीज ने आन्ध्र राजाओं की सेना का वर्णन किया है। पर वही लेखक इतिहास के लिये लिखता है कि आन्ध्र वंश के राज्य से १००० वर्ष पूर्व मौर्य काल में मेगास्थनीज आया था। हिन्दी या अन्य लोकभाषाओं के इतिहास में कहते हैं कि ७१२ ई. में सिन्ध पर मुस्लिम अधिकार होने पर गोरखनाथ ने राष्ट्रीय एकता के लिये लोकभाषा साहित्य द्वारा प्रचार किया। पर वही छात्र इतिहास में पढ़ते हैं कि उस काल में शंकराचार्य सिन्ध और कश्मीर में संस्कृत में शास्त्रार्थ कर रहे थे। मुहम्मद बिन कासिम के राज्य में कैसा शास्त्रार्थ सम्बव था? जब मुस्लिम आक्रमण हो रहा था तो वै बौद्धों के विरुद्ध क्यों शास्त्रार्थ कर रहे थे?  खारावेल के शिलालेख की हर पंक्ति का उलटा या निराधार अर्थ किया गया है-वह चेदि (ओड़िशा के दक्षिण पश्चिम) का था पर उसे उत्तर पूर्व के गौड़ का कहा है। उसने नन्द द्वारा बनायी गयी नहर का ८०३ वर्ष बाद मरम्मत करायी पर कहा जाता है कि उसने नन्द के विरुद्ध विद्रोह किया (३५ पीढ़ी बाद)। मगध के चौथे आन्ध्रवंशीय राजा पूर्णोत्संग के अनुरोध पर उसने मथुरा में यवनों को पराजित किया। पर कहते हैं कि उसने मगध को पराजित किया। असीरिया इतिहास के अनुसार यह आक्रमण ८२६ ई.पू. में हुआ था, जो खारावेल ने भी लिखा है पर उसका समय ई.पू. प्रथम सदी मानते हैं जब इसा ने वहां से भाग कर भारत में शरण ली थी। यवनों को पराजित करने के बाद उसने राजसूय यज्ञ किया-पर उसे जैन कहा गया। खारावेल ले पूर्व या बाद के चेदि राजाओं के बारे में कोई सोचता भी नहीं है।